दूध – एक धीमा जहर -2 [खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती, प्रविष्टि – 15]

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दूध के न पचने से आंतो में सड़ता विष-रूपी भोजन

दुनिया में अधिकतर वयस्क लोग लेक्टोज़-इंटोलरेंट (लेक्टोज़ के प्रति असहिष्णु अथवा संवेदनशील) होते हैं। ये लोग दूध को ठीक से पचाने में अक्षम होते हैं।

दरअसल दूध के पाचन के लिए हमें रेनिन नाम के एंजाइम की ज़रुरत होती है जो कि हमारे आमाशय में उपस्थित ग्रंथि द्वारा स्रावित किया जाता है। लेकिन दूध में विद्यमान प्रोटीन को पचाने में आवश्यक रेनिन एंजाइम इंसानों में केवल तीन साल की उम्र तक ही स्रावित होता है। इसके बाद शरीर में इसका निर्माण प्राकृतिक रूप से अपने आप बंद हो जाता है। अतः यह तो प्रकृति का विधान है कि तीन साल के अन्दर-अन्दर शिशु को माँ का दूध छुड़ाना (वीनिंग-ऑफ) होता है। उसके बाद वह दूध को पचा ही नहीं सकता। और जो चीज हमारे शरीर में पच नहीं सकती वह वहाँ व्यर्थ पड़ी रह कर दूसरों के पाचन में भी व्यवधान खड़ा करती है व स्वयं वहाँ पड़े-पड़े सड़ कर विष का रूप ले लेती है।

दूध हमारे आमाशय में पहुँच कर दही का रूप ले लेता है और अन्य खाये हुए पदार्थों की ऊपरी परत के रूप में जमा हो कर उन्हें ढ़क देता है जिससे उन पर भी पाचक-रसों की क्रिया मंद पड़ जाती है। इससे शरीर में भारीपन का अहसास और अपच होना आम बात है। गाय के दूध में विद्यमान अत्यधिक प्रोटीन से बच्चों के लिवर पर अधिक कार्य का दबाव आ जाता है जो अन्य पदार्थों के पाचन को भी प्रभावित करती है। पाचन तंत्र बिगड़ने से बच्चों को अक्सर उल्टी हो जाती है, डायरिया हो सकता है और खट्टी-डकारें आने लगती है। इसीलिए बच्चे दूध से मूँह फेरते हैं, नफरत करते हैं। परंतु उन पर हमेशा उसे नियमित रूप से पीने का दबाव डाला जाता है.

दूध में उपस्थित लेक्टोज़ नामक जटिल शर्करा को पचाने के लिए लेक्टेज़ नामक एंजाइम की अहम् भूमिका है। किन्तु रेनिन की तरह लेक्टेज़ का उत्पादन भी हमारे शरीर में बढ़ती उम्र के साथ घटता जाता है और अधिकतर यह 4 वर्ष की उम्र के बाद नहीं बन पाता। अधिक डेयरी उत्पादों का सेवन करने वाले जानते हैं कि दूध से पेट में बैचेनी, गैस, ऐंठन, वमन, डायरिया जैसे लक्षणों का अनुभव होता है। इसके सहजता से न पचने की वजह से ही इसे भारी व गरिष्ट व्यंजनों की श्रेणी में डाला जाता है।

दूध के सेवन से कैल्सियम की कमी

यह एक प्रचलित भ्रान्ति है कि दूध में भरपूर कैल्सियम होता है, जिसको पीने से हमारी हड्डियां मजबूत होती है। आपको यह जानकर शायद अफ़सोस होगा कि सत्य इसके बिलकुल विपरीत है। दूध आपके शरीर में विद्यमान कैल्सियम को भी शरीर से बाहर कर के ही दम लेता है।

यह तथ्य भी सही है कि गाय के दूध में भरपूर कैल्सियम होता है। पर गाय के शरीर में इतना कैल्सियम कहाँ से आता है? हरे-भरे पौधे खाने से। हाँ, पौधों में कैल्सियम के साथ पर्याप्त मात्रा में मैग्नीशियम भी होता है जो गाय के शरीर में कैल्सियम को अवशोषित करने में मददगार होता है। पर उसके दूध में मैग्नीशियम की मात्रा अनुपात में बहुत कम रह जाती है.

असल में, कैल्सियम का अवशोषण हमारे शरीर अथवा भोजन में विद्यमान फास्फोरस या मैग्नेशियम की मात्रा पर निर्भर करता है। कैल्सियम के अवशोषण के लिए हमारे शरीर में उसका आधा फास्फोरस होना ज़रूरी है यानि कि 2:1 का अनुपात। परंतु गाय के दूध में यह अनुपात (10:1) संतुलित नहीं होता। उसमें कैल्सियम की मात्रा कहीं ज्यदा होती है। प्रोटीन और कैल्सियम के आपस में जुड़ जाने से वे अवशोषित नहीं हो पाते। दूध एक पशु-जन्य प्रोटीन है, इसकी अत्यधिक मात्रा हमारे खून में एसिडिटी उत्पन्न करती है। सभी एनीमल प्रोटीन के एमिनो एसिड में सल्फर की काफी मात्रा होती है, विशेषकर सिस्टाइन और मिथियोनाइन (C-5, H-11, NO, S) में, (100 ग्राम मलाई-रहित दूध में 99 मि.ग्रा. मिथियोनाइन होता है)। इससे खून में एसिडिटी (अम्लता) बढ़ जाती है। हमारा शरीर खून की अम्लता को प्राथमिकता से नियंत्रित करता है। इसे उदासीन करने के लिए अल्कलीन (क्षार) की आवश्यकता पड़ती है। जब कोई अन्य क्षार शरीर में उपलब्ध नहीं होता तो फिर इसे हमारी हड्डियों और दांतों में उपलब्ध कैल्सियम और फोस्फेट में से फोस्फेट के रिजर्व का इस्तेमाल करके पूर्ति की जाती है। इससे हड्डियों में उपलब्ध कैल्सियम मुक्त हो जाता है। परिणामतः शरीर की हड्डियां कमज़ोर हो जाती है। दूध पीकर आप अपने मूत्र की जांच करवाएं तो आपको उसमें कैल्सियम की बढ़ी हुई मात्रा मिलेगी, यह इस तथ्य को प्रमाणित करने के लिए काफी है। वैसे इस बारे में अब तक हुए कई वैज्ञानिक अध्ययनों एवं शोध कार्यों से इसको प्रमाणित किया जा चुका है। [American Journal of Clinical Nutrition, (1995; 61,4)], [Journal of Clinical Endocrinology (N. A. Breslau & Colleagues, 1988; 66:140-6)], [American Journal of Clinical Nutrition, (Remer T., 1994; 59:1356-61)]. ऐसे ही 26 अध्ययनों के आधार पर यह प्रमाणित हो चुका है कि प्रत्येक 40 ग्राम एनीमल प्रोटीन खाने पर हम 50 मि.ग्रा. अतिरिक्त कैल्सियम अपने मूत्र के जरिये विसर्जित कर देते हैं। हमारे कंकाल में कुल एक कि.ग्रा. से भी कम कैल्सियम होता है। अतः प्रतिदिन 50 मि.ग्रा. कैल्सियम की हानि का अर्थ है, प्रतिवर्ष 2 प्रतिशत कैल्सियम का हमारी हड्डियों से बाहर निकल जाना। यही ओस्टीयोपोरोसिस जैसी बीमारी का प्रमुख कारण है।

आंकड़े भी इस तथ्य की और स्पष्ट रूप से इंगित करते हैं। जिन देशों में डेयरी-उत्पादों का उपभोग ज्यादा होता है (जैसे – अमरीका, इंग्लेंड और स्वीडन), वहाँ ओस्टीयोपोरोसिस (कमज़ोर हड्डियों की बीमारी) की दर भी उसी अनुपात में अधिक है। वहीँ चीन और जापान जैसे देशों में ओस्टीयोपोरोसिस की दर काफी कम है, क्योंकि वहाँ डेयरी उत्पादों का उपभोग अपेक्षाकृत काफी कम है।

गाय के दूध में माँ के दूध की अपेक्षा तीन से चार गुना अधिक प्रोटीन होता है जो कि हमारी आवश्यकता से कई अधिक है। इसमें सल्फर की भी काफी मात्रा होती है जो कि हमारे शरीर के लिए अनावश्यक है। अत्यधिक प्रोटीन के नियमित सेवन से समय से पहले ही परिपक्वता आ जाती है और शरीर का ठीक-ठीक विकास नहीं हो पाता। ये प्रोस्टेट और स्तन के कैंसर, शीघ्र थकान, खराब गुर्दे आदि गंभीर रोगों का कारण बनता है।

चूँकि पशु-जनित प्रोटीन (विशेषकर कैसीन) भी रक्त में अम्लता उत्पन्न करता है और जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि अम्लता को उदासीन करने के लिए फोस्फेट की अतिरिक्त आवश्यकता को शरीर हमारी हड्डियों और दांतों से कैल्सियम निकाल कर पूरी करता है (हड्डी कैल्सियम और फोस्फेट के संघटन से बनती है)। जितना अधिक प्रोटीन और अम्लीय भोजन आप खायेंगे उतना ही आपकी हड्डियों से कैल्सियम का भण्डार खाली होता जायेगा। नतीजतन ओस्टीयोपोरोसिस और फिर फ्रेक्चर्स का सिलसिला शुरू हो जाता है। ज्यादा मात्रा में पशु-प्रोटीन के सेवन से सुपाचन की क्रिया के अभाव में बहुत से विषैले तत्वों की बहुलता हो जाती है, जो शरीर को शनैः शनैः क्षीण कर मौत के करीब ले जाती हैं।

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खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती में आगे पढ़ें, इसी श्रंखला का शेषांश अगली पोस्ट में।

धन्यवाद!

सस्नेह,
आशुतोष निरवद्याचारी



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